खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे…..आओ मूर्ख
राजा भोज की रानी और पंडित माघ की पत्नी दोनों महल में खड़ी-खड़ी बातें कर रही थीं। राजा भोज ने उनके नज़दीक जाकर उनकी बातें सुनने के लिए अपने कान लगा दिए। यह देख माघ की पत्नी सहसा बोली- ‘आओ मूर्ख!
राजा भोज तत्काल वहाँ से चला गया। हालांकि उसके मन में रोष तो नहीं था, तथापि स्वयं के अज्ञान पर उसे तरस अवश्य आ रहा था। वह जानना चाहता था कि मैंने क्या मूर्खता की है ?
राज सभा का समय हुआ।दंडी, भारवि आदि बड़े-बड़े पंडित आए राजा ने हर एक के लिए कहा-‘आओ मूर्ख!
पंडित राजा की बात सुनकर हैरान हो गए, पर पूँछने का साहस किसी ने नहीं किया।
अंत में पंडित कालिदास आए। राजा ने वही बात दोहराते हुए कहा-‘आओ मूर्ख!
यह सुनते ही कालिदास बोले-
खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे, गतं न शोचामि कृतं न मन्ये।
द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन्!किं कारणं भोज! भवामि मूर्ख:।।
पार्थिव! मैं खाता हुआ नहीं चलता, हंसता हुआ नहीं बोलता, बीती बात की चिंता नहीं करता, कृतघ्न नहीं बनता और जहाँ दो व्यक्ति बात कर रहे हों, उनके बीच में नहीं जाता। फिर मुझे मूर्ख कहने का क्या कारण है ?
राजा ने अपनी मूर्खता का रहस्य समझ लिया।
अब वह तत्काल बोल उठा- ‘आओ विद्वान!
इस घटना से हम समझ सकते हैं कि केवल शिक्षण या अध्ययन से विद्वत्ता नहीं आती। विद्वत्ता आती है- नैतिक मूल्यों को आत्मगत करने से। वे पुराने मूल्य, जो अच्छे हैं, खोने नहीं चाहिए। नए और पुराने मूल्यों में सामंजस्य होने से ही शिक्षा के साथ नैतिकता पनपती है।
लेख सौजन्य : अशोक बाजपेयी
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