बाबा कृष्णदास जी वृन्दावन में वास करते हुए श्री राधारानी जी की भक्ति करते थे। सच्चा भक्त होते हुए भी उनसे एक भूल हो गयी और परिणामस्वरूप उन्हें विरह की अग्नि (Virah Ki Agni) में जलना पड़ा। यह विरह की अग्नि सचमुच ही प्रकट हो गयी थी। आइये पढ़ते हैं भक्ति प्रेम की यह अनूठी कथा।
सिद्ध बाबा कृष्ण दास जी की भक्ति कथा
जब विरह की अग्नि में सचमुच शरीर जल गया
रणवाड़ी के बाबा कृष्णदास जी (Baba Krishna Das Ji) बंगवासी-बंगाल प्रदेश के रहने वाले थे, संपन्न ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे, जब घर में अपने विवाह की बात सुनी तो गृहत्याग कर पैदल भागकर श्रीधाम वृंदावन आ गए। जिस समय वृंदावन आये थे उस समय वृंदावन भीषण जंगल था, वही अपनी फूस की कुटी बनाकर रहने लगे, केवल एक बार ग्राम से मधुकरी माँग लाते थे।
बाबा कृष्णदास जी ने आदेश को स्वप्न समझा
बाबा कृष्णदास जी बाल्यकाल में ही व्रज आ गए थे इसलिए किसी तीर्थ आदि का दर्शन नहीं किया था। प्रायः ५० वर्ष का जीवन बीत गया था, एक बार मन में विचार आया कि चारधाम यात्रा कर आऊ। किन्तु प्रिया जी (श्री राधा रानी) ने स्वप्न में आदेश दिया इस धाम को छोड़कर अन्यत्र कही मत जाना, यही रहकर भजन करो, यही तुम्हे सर्वसिद्धि लाभ होगा।
किन्तु बाबा ने श्री जी के स्वप्नादेश को अपने मन और बुद्धि की कल्पना मात्र ही समझकर उसकी कोई परवाह न की और तीर्थ भ्रमण को चल पड़े।
बाबा कृष्ण दास जी ने भूलवश तप्तमुद्रा छाप धारण कर ली
भ्रमण करते करते द्वारिका जी में पहुँच गए तो वहाँ तप्तमुद्रा की शरीर पर छाप धारण कर ली। चारो संप्रदायो के वैष्णवगण द्वारिका जाकर तप्तमुद्रा धारण करते है, परन्तु ये श्री वृंदावनीय रागानुगीय वैष्णवों की परंपरा के सम्मत नहीं है।
बाबा कृष्णदास जी (Baba Krishna Das Ji) ने व्रज के सदाचार की उपेक्षा की। तत्क्षण ही उनका मन खिन्न हो उठा और तीर्थ में अरुचि हो उठि और वे तुरंत वृंदावन लौट आये । जिस दिन लौटकर आये उसी रात्रि में श्री प्रिया जी (श्री राधा रानी-पढ़िए श्री राधा शक्ति परिचय) ने पुन: स्वप्न दिया और बोली- तुमने द्वारिका की तप्तमुद्रा ग्रहण की है अतः तुम अब सत्यभामा(पढ़िए सत्यभामा का पूर्व जन्म) के परिकर में हो गए हो, अब तुम व्रजवास के योग्य नहीं हो, द्वारिका चले जाओ।
इस बार बाबा को स्वप्न कल्पित नहीं लगा इन्होने बहुत से बाबा से जिज्ञासा की, सबने श्री प्रिया जी के ही आदेश का अनुमोदन किया। गोवर्धन में भी एक बाबा कृष्णदास जी नाम के ही थे, वे इन बाबा के घनिष्ठ मित्र थे। एक बार आप उनके पास गोवर्धन गए तो उन्होंने गाढ़ आलिंगन किया और पूछा इतने दिनों तक कहाँ थे?
तो बाबा कृष्णदास जी (Baba Krishna Das Ji) ने कहा – कि द्वारिका गया था और अपनी तप्त मुद्राये भी दिखायी, यह देखते ही बाबा अचानक ठिठक गए और लंबी श्वास लेते हुए बोले -ओं हो! आज से आपके स्पर्श की मेरी योग्यता भी विनष्ट हो गई, कहाँ तो आप “महाराजेश्वरी की सेविका(सत्यभामा की सेविका)” और कहाँ मैं “एक ग्वारिनी की दासी(राधारानी की दासी)।
इतना सुनते ही बाबा एक दम स्तंभित हो गए और प्रणाम करके वापस लौट आये, और इनको सब वैष्णवों ने कहा – इसका कुछ प्रतिकार नहीं परन्तु श्री प्रिया जी के साक्षात् आदेश के ऊपर भी क्या कोई उपदेश मन बुद्धि के गोचर हो सकता है?
विरह की अग्नि का प्रत्यक्ष रूप में का प्राकट्य-Virah Ki Agni
हताश हो कुटिया में प्रवेश कर बाबा कृष्णदास जी(Baba Krishna Das Ji) ने अन्नजल त्याग दिया अपने किये के अनुताप से और श्रीप्रिया जी के विरह की अग्नि (Virah Ki Agni) से ह्रदय जलने लगा। कहते है इसी प्रकार ३ महीने तक रहे। अंतत: अन्दर की विरहानल (विरह की अग्नि–Virah Ki Agni) प्रत्यक्ष रूप में बाहर शरीर पर प्रकट होने लगी। तीन दिन तक चरण से मस्तक पर्यंत क्रमशः अग्नि से जलकर इनकी काया भस्म हो गई, अचानक रात में सिद्ध बाबा जगन्नाथ दास जी जो वही पास में ही रहते थे,
उन्होंने अपने शिष्य श्री बिहारीदास से कहा – देखो! तो इस बाबा की कुटिया में क्या हो रहा है ?
उसने अनुसन्धान लगाया तो कहा – रणवाडी के बाबा की देह जल रही है, भीतर जाने का रास्ता नहीं था अंदर से सांकल बंद थी। सिद्ध बाबा समझ गए और बोले -ओं विरहानल (विरह की अग्नि–Virah Ki Agni)! इतना कहकर बाबा की कुटिया के किवाड़ तोड़कर अंदर गए, और व्रजवासी लोग भी गए। सबने देखा कंठपर्यंत तक अग्नि आ चुकी थी, बाबा ने रुई मंगवाई और तीन बत्तियाँ बनायीं और ज्यो ही उन्होंने उनके माथे पर रखी कि विरह से साक्षात प्रत्यक्ष हुयी अग्नि ने एकदम आगे बढकर सारे शरीर को भस्मसात कर दिया।
जगन्नाथ बाबा वहाँ के लोगो से बोले- तुम्हारे गाँव में कभी दुःख न आएगा, भले ही चहुँ ओर माहमारी फैले, और आज भी बाबा कि वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा जाता है। इस घटना को १०० वर्ष हो गए, आज भी सिद्ध बाबा कृष्णदास जी (Baba Krishna Das Ji) की समाधि बनी हुई है और व्रजवासी जाकर प्रार्थना करके जो भी मांगते है मनोकामना पूरी होती है।
धन्य है ऐसे राधारानी जी के दास और उनकी व्रजनिष्ठा जो शरीर तो छोड़ सकते है पर श्री धाम वृन्दावन नहीं।
!! जय जय श्री राधे !!
!!श्री राधा विजयते नमः!!
FAQ-विरह की अग्नि पर बहुधा पूछे जाने वाले प्रश्न
Q1. विरह की अग्नि क्या होती है ?
A. जब दो प्रेम करने वाले एक दूसरे से किन्ही कारणों से दूर हो जाते हैं तो उन्हे एक दूसरे की याद करके बहुत दुःख होता है। इसी दुःख को विरह की अग्नि (Virah Ki Agni) कहते हैं क्योंकि यह व्यक्ति को अग्नि के सामान धीरे-धीरे बहुत कष्ट देती है।
Q2. विरह की अग्नि को और किन नामों से जानते हैं?
A. विरह की अग्नि को विरह की वेदना,विरह की पीड़ा, विरह की अगिन , विरहानल , विरहाग्नि , विरह पावक आदि विशेषणों से भी जानते हैं।
Q3. विरह की अग्नि का सबसे प्रसिद्द उदाहरण कौन सा है?
A. विरह की अग्नि (Virah Ki Agni) का सबसे प्रसिद्द उदाहरण राधा और गोपियों का भगवान श्री कृष्ण से विरह है। कितने ही कवियों और साहित्यकारों और संतो ने उच्च स्तर की रचनायें कृष्ण गोपी प्रेम के विरह की अग्नि पर ही लिखी हैं।
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