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माता वाराही का मंदिर जहां ग्रह-नक्षत्र, भूत प्रेत भी दर्शनों के लिए आते हैं

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वाराही देवी मंदिर,काशी (Varahi Devi Temple, Varanasi) : पुराणों में वर्णित और वर्त्तमान में वाराणसी नाम से प्रसिद्द काशी नगरी रहस्यों से परिपूर्ण अद्भुत आध्यात्मिक वैभव से संपन्न है। इस नगर में सभी प्रमुख दैवी शक्तियों का बसेरा है। पूरा नगर एक से बढ़कर एक दिव्य शक्तियों एवं देवताओं के मंदिरों से भरा पड़ा है। यहाँ संसार का त्याग करने वाले योगियों और साधुओं के साथ साथ सांसारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अनेकानेक पूजा स्थल हैं।

सांसारिक मान -सम्मान , प्रतिष्ठा पाने की इच्छा कौन नहीं चाहता। उच्च पदस्थ अधिकारियों , राजनेताओं आदि के लिए तो पद, शक्ति, मान सम्मान पर ही सब टिका होता है। माता वाराही इन्ही विभूतियों को प्रदान करने वाली देवी हैं। आज हम इसी बारे में चर्चा करेंगे।

यदि आप अन्यान्य प्रकार की परेशानियों का सामना कर रहे हैं, बीमारियों से पीड़ित हैं और कोई भी उपाय नहीं सूझ रहा है, तो माता वाराही देवी के द्वार पर अपना सिर झुकाएं और फिर देखें कि आपके जीवन में चमत्कार हो रहे हैं। अगर आप किसी कंपनी, शहर, प्रांत या देश के प्रशासनिक अधिकारी हैं तो यहां आपकी उपस्थिति अवश्य होनी चाहिए क्योंकि माता वाराही देवलोक की प्रशासनिक देवी हैं। माता के दरबार में आपकी उपस्थिति सब कुछ आपके वश में कर देगी।

काशी में उनका मंदिर डी16/84 पर गंगा तट पर मान मंदिर घाट के पास स्थित है। कहा जाता है कि माता वारही इतनी उग्र हैं कि किसी भी आगंतुक को अपने दरबार में ज्यादा देर तक नहीं रहने देती हैं। माता का ताप किसी को वहां रहने नहीं देती। या यूं कहें कि इस ताप की वजह से वहां कोई नहीं रुक पाता। मां वाराही का मंदिर प्रतिदिन सुबह चार बजे खुलता है और सुबह ही साढे़ नौ बजे बंद हो जाता है। उसके बाद पूरे दिन उनका पट बंद रहता है।

यहां आप सामने से विग्रह का दर्शन नहीं कर सकते। मां मंदिर के नीचे तलघर में बने गर्भगृह में निवास करती हैं। वहां पुजारी के अलावा किसी अन्य को जाने की अनुमति नहीं है। ऊपर बने एक झरोखे से आप केवल उनके चरण और एक तरफ के मुख का ही दर्शन कर सकते हैं। मां के उग्र रूप को देख पाना किसी के लिए भी असह्य है। इसका कारण उनके मुख से निकलने वाली तीव्र आभा है।

मां वाराही देवी मंदिर के महंत श्री कृष्णकांत दुबे का कहना है कि मां का विग्रह अत्यंत प्राचीन और स्वयंभू हैं। मंदिर कब और कैसे बना और किसने बनवाया, इसका कोई लेखा जोखा नहीं है। कहा जाता है कि जब काशी में माता सती का दांत गिरा तो उससे माता वाराही उत्पन्न हुईं। इसलिए इन्हें शक्तिपीठ भी माना जाता है। दैवीय क्रम में माता वाराही क्षेत्रपालिका के रूप में काशी की रक्षा करती हैं। देवी इस नगर को बुरी बलाओं, बुरी आत्माओं और पैशाचिक बाधाओं से बचाती हैं। कहते हैं कि जब मां दुर्गा का असुरों से युध्द चल रहा था तब मां वाराही ही उनकी सेनापति थीं।

एक कथा यह भी है कि जब देवाधिदेव महादेव इस नगर को काशीराज दिवोदास से प्राप्त करने के लिए सभी प्रयास कर रहे थे। इसी के अनन्तर एक बार उन्होंने चौंसठ योगिनियों को भी काशी भेजा लेकिन वे सभी काशी की सुंदरता को देखकर इतनी मोहित हो गयीं कि वे वहीं की होकर रह गयीं। कहा जाता है कि मां वाराही भी उनमें से एक थीं। इस कथा का उल्लेख काशीखंड में मिलता है। यद्यपि, मत्स्य पुराण में भी माता वारही की दिव्य शक्ति का उल्लेख है।

माघ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को माता वाराही का विशेष रूप से श्रृंगार किया जाता है। उस दिन रात के एक बजे ही मंदिर के कपाट खोल दिए जाते हैं। नवरात्रि में भी सप्तमी के दिन उनके दर्शन की मान्यता है।

महंत दुबे जी बताते हैं कि जो भी भक्त मां वाराही से हृदय से जुड़ता है, वह हमेशा सभी प्रकार की आध्यात्मिक शक्तियों और विद्याओं से संपन्न रहता है। लेकिन मां से ये सब पाने की एक शर्त है कि आप भक्ति भाव से मां को बुलाएं और नित्य दर्शन के लिए यहां आते रहें। उनका कहना है कि एक दिन या कभी-कभार आने वाले भक्त को मां को उतने अच्छे लगते। वह अपने नियमित भक्तों से बहुत प्यार करती हैं। अगर कभी कोई नेमी भक्त दर्शन के लिए आना बंद कर देता है तो मां उसे इस तरह खींचती है कि उसे सिर के बल चलते हुए यहां आना पड़ता है।

इस संदर्भ में श्री दुबे जी ने हमें एक रहस्यमयी कहानी सुनाई। एक बार एक भक्त ने यह कहकर यहां आना बंद कर दिया कि,”जा मैय्या अब इहां ई जीवन में कभ्भो न आइब।” अर्थात हे माता , अब मैं यहाँ कभी नहीं आऊंगा। इस बात पर माँ क्रोधित हो गयीं। अचानक एक रात उस व्यक्ति के दोनों पैरों का पंजा उल्टा हो गया। उसे स्वप्न में अपनी मां का आदेश मिला कि, “अब उल्टे पैर पर चलते हुए यहां आ जाओ।” सुबह उसे अपनी भूल का एहसास हुआ। वह अपने उल्टे पंजे से रेंगते हुए माता के दर्शनों के लिए आने लगा। फिर छह महीने के लगातार दर्शन और रोते हुए प्रायश्चित के बाद, उसके पैर धीरे-धीरे अपने आप सीधे हो गए।

कहा जाता है कि ब्रह्म मुहूर्त में महंत द्वारा पूजा करने के बाद इस मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। तत्पश्चात सभी ग्रह नक्षत्र मां की पूजा करने के लिए यहां आते हैं। इसी प्रकार संध्या के समय भूत, प्रेत, पिशाच, जिन्ना, यक्ष और यक्षिणी यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उस समय अगर कोई गलती से भी मंदिर में घुस गया तो वह यहां से जिंदा बच नहीं सकता।

इस संदर्भ में महंत श्री कृष्णकांत दुबे बताते हैं कि कैसे एक बार उनका बेटा यहां आकर फंस गया और फिर बाद में मां ने ही उसे भूत, प्रेत, पिशाच, जिन्नात, यक्ष और यक्षिणियों से बचाया।

उन्होंने कहा कि मंदिर में आने वाले सभी भूत, प्रेत, पिशाच, जिन्ना, यक्ष और यक्षिणी अपनी पूजा में व्यवधान सहन नहीं करते हैं। वे फिर उस बाधक व्यक्ति को मार देते हैं जो बाधा डाल रहा है। यह शक्तियां यहां किसी और को नहीं पहचानते। वे केवल मां वाराही के पुजारी और महंत को ही पहचानते हैं। इसके अतिरिक्त यदि वो महंत का पुत्र, पुत्री या पत्नी होने पर भी किसी अन्य व्यक्ति को नहीं छोड़ते।

लेकिन पिता की मृत्यु के बाद जब यह पुत्र महंत के सिंहासन पर विराजमान होगा और पूजा अर्चना के विधि विधान को पूरा करेगा, तभी उसे वे सभी आध्यात्मिक अधिकार प्राप्त होंगे जो उसके पिता को मिले थे।


इस मंदिर में सुबह की आरती और पुष्पजलि मंत्रमुग्ध कर देने वाली होती है। मां की आरती अथर्ववेद में की जाती है। पुष्पजलि सामवेद और यजुर्वेद में होती है। राग भैरवी और सामवेद में गाकर माता की स्तुति की जाती है। मां की आराधना में पढ़े जाने वाले मंत्रों में चारों वेदों का समावेश है।एक प्रकार से यहां घनपाठ के जरिए ही पूजा अर्चना की जाती है।

इस मंदिर में सुबह की आरती और पुष्पजलि मंत्रमुग्ध कर देने वाली होती है। अथर्ववेद में मां की आरती की जाती है। पुष्पजलि सामवेद और यजुर्वेद में पाई जाती है। राग भैरवी और सामवेद में गाकर माता की स्तुति की जाती है। मां की आराधना में जिन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है उनमें चारों वेदों का समावेश होता है। एक तरह से यहां सिर्फ घनपथ से ही पूजा होती है।

कहा जाता है कि यहां के पुजारी न तो किसी से सुरों की शिक्षा लेते हैं सीखते हैं और न ही उन्हें संगीत का ज्ञान दिया जाता है ; परन्तु फिर भी पूजा शुरू होते ही चमत्कारिक रूप से कंठ से सभी श्लोक राग में ही उतरने लगते हैं।

महंत श्री दुबे बताते हैं कि सुदूर दक्षिण भारत के कई सारे प्रशासनिक अधिकारी यहां वाराही देवी के दर्शन करने आते हैं। अपना पदभार ग्रहण करने से पहले वह वहां से काशी आकर माता वाराही के दरबार में दर्शन करते हैं। उनका कहना है कि पिछले दिनों टीवी पर सीरियल गणेश पुराण में माता वारही की महिमा दिखाये जाने के बाद उत्तर भारत के अधिकारी भी दर्शन करने आने लगे हैं।

वाराही माता अष्ट मातृकाओं में से एक है। अष्ट मातृका आठ देवियों का एक मंडल है। इस ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु, पदार्थ और जीव को कार्य करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यहाँ तक कि भगवान शिव को भी ब्रह्मांड की धुरी बनने के लिए आदिशक्ति की आवश्यकता हुयी। जिस प्रकार भवान शिव की ऊर्जा आदिशक्ति है ुअसि प्रकार माता वाराही भी भगवान विष्णु के वराह अवतार की शक्ति हैं।

भगवान विष्णु के वाराह अवतार को सक्रिय करने वाली ऊर्जा या शक्ति माता वाराही हैं। सनातन धर्म के तीनों मतों (शाक्त, शैव एवं वैष्णव) के लोग वाराही माता की पूजा करते हैं। देवी की पूजा मुख्यतः रात में तांत्रिक क्रियाओं के साथ की जाती है। बौद्ध धर्म में पूजे जाने वाले मरीचि और वज्रवराही भी वास्तव में माता वाराही का ही स्वरुप हैं। वाराही देवी माँ दुर्गा का एक तामसिक और सात्विक सम्मिलित रूप है। उनका सिर जंगली शूकर का है।।

वाराणसी ‘काशी’ में वाराही देवी का मंदिर कैंट रेलवे स्टेशन से करीब नौ किलोमीटर दूर मनमंदिर घाट के पास है। मंदिर संकरी गली में एवं पवित्र गंगा के समीप है। अतएव गोदौलिया से वहां पैदल ही वहां जाना पड़ता है।

फोटो : मनीष खत्री

फोटो : मनीष खत्री

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