महाराणा प्रताप का दिवेर छापली का निर्णायक युध्द और ऐतिहासिक प्रमाण
दिवेर-छापली का युद्ध मेवाड़ तथा मुगलों के बीच निर्णायक युद्ध था। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। विजयादशमी के दिन २६ अक्टूबर, १५८२ को राणाकड़ा (दिवेर घाटा), राताखेत (उड़ेश्वर महादेव मंदिर छापली के दक्षिण-पूर्व में स्थित मैदान) आदि स्थानों पर राणा प्रताप की सेना तथा मुगल सेना के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। इस युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। ये दिवेर-छापली तथा मगरांचल के वीर रावत-राजपूत ही थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के नेतृत्व में युद्ध में अदम्य शौर्य एवं साहस का परिचय देते हुए मुगलों को हमेशा के लिए खदेड़ दिया।
प्रस्तावना
वर्तमान में दो ग्राम पंचायतों एवं सात राजस्व गांवो के समूह को छापलिया बोलचाल की भाषा में कहा जाता है। पुराने दस्तावेजों में भी छापलिया ही अंकित है। राणा कड़ा घाटी में मुख्य रूप से छापामार पद्धिति से युद्ध लड़ा गया। इसके कारण इन गांवो का (राणा कड़ा घाटी क्षेत्र) सामूहिक नाम छापलिया प्रचलित हुआ। इसकी ऐतिहासिक विशेषता हमें गौरवान्वित रखती है। इसका सम्पूर्ण क्षेत्र भक्ति, शौर्य व बलिदान की गाथाओं और मेवाड़ के स्थानीय अतीत, गौरवशाली परम्पराओं को अपने आंचल में समेटे हुए है। इसकी जलवायु में ही स्वाभिमान की सुगन्ध व्याप्त है। इस पर्वत शृंखला में कोई भी ऐसी घाटी नहीं है जो महाराणा प्रताप के किसी ना किसी वीर कार्य से पवित्र नहीं हुई हो। जब-जब भी मेवाड़, मारवाड़ व अजमेर राज्य पर संकट आया तो यह कन्दराऐं ही आश्रम स्थली रही।
दिवेर-छापली युद्ध की पृष्ठभूमि
अरावली की सुरम्य पर्वतमालाओं में ४८ ढ़ाणियों के समूह का नाम छापली है। इसे महाराणा प्रताप की गुप्त राजधानी व ऐतिहासिक विजय युद्ध (सन् १५८२ ई.) की रणस्थली होने का गौरव मिला है। यहां प्रमाणस्वरूप राणा की गुप्त तैयारियों का केन्द्र गोकुलगढ़ राजधानी व इतिहास प्रसिद्ध दिवेर युद्ध की रणस्थली राणा कड़ाघाट है। यहां सैकड़ो वीरों की समाधियां आज भी मौजूद है। यहां की बसावट निरन्तर बदलती रही है। इसका प्राचीन नाम धोरण है। इसे अड़वाल जी खांखावत ने संवत् १२२५ ई. में बसाया था। मेवाड़, मारवाड़ व अजमेर रियासतों का सीमान्त क्षेत्र व पारम्परिक रास्तों का संगम होने से कई आक्रमणों को झेल चुका है।
सन् १८१८ ई. से पूर्व छापली गांव स्वतंत्र मेवाड़ रियासत के देवगढ़ परगने में था। स्थानीय लोगों की देवगढ़ ठिकाणे से अनबन के चलते महाराणा भीमसिंह ने इस क्षेत्र को १० वर्षो के लिए अंग्रेजों को अर्पण कर दिया था। महाराणा जवानसिंह ने ८ वर्ष और बढ़ा दिये। १८३५ ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की चीफ कमीश्नरी के अधीन स्टेट अजमेर, मगरांचल के कर्नल डिक्सन को १०० साल की लीज पर सौंप दिया गया।
सन् १९३५ ई. में मेवाड़ स्टेट के प्रधान सर टी.वी. राघवाचारी ने महाराणा भूपालसिंह को अपने गांव कम्पनी को दिये जाने की जानकारी दी। लीज समय पूरा होने पर गांवों को पुनः प्राप्त करने की कार्यवाही शुरू करने की अनुमति मांगी। छापली को पत्र व्यवहार व अन्य प्रयासों के बाद १ अप्रेल, १९३८ ई. को पुनः मेवाड़ स्टेट को सौंप दिया गया। आजादी के बाद यह गांव उदयपुर जिले में और १ अप्रेल १९९१ ई. को राजसमन्द जिले के अन्तर्गत आया था।
दिवेर-छापली युद्ध
प्राचीन मेवाड़ राज्य का हिस्सा दिवेर-छापली अरावली की वादियों में राजसमन्द जिले में स्थित है। प्राचीन काल से यहां वीर रावत-राजपूतों का आधिपत्य रहा है।
१८ जून, १५७६ को हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। वास्तव में अकबर एवं महाराणा प्रताप के बीच संघर्ष का हल्दीघाटी में अन्त न होकर आरम्भ हुआ था तथा इस संघर्ष की सफल परिणति दिवेर छापली में हुई। स्वयं अकबर हल्दीघाटी का युद्ध के बाद मेवाड़ पहुंचा तथा नवम्बर १५७६ में उदयपुर का नाम ‘मुहम्मदाबाद’ रखा। वह नवम्बर अंत तक उदयपुर में डेरा डाले रहा पर प्रताप को न पकड़ सका। इसके पश्चात् शाहबाज खां ने प्रताप को बंदी बनाने के असफल प्रयास किये पर सफल न हो सका और निराश होकर लौट गया। इस प्रकार हल्दीघाटी युद्ध से लेकर १५८२ तक दोनों सेनाओं मे बड़ी मुठभेड़ नहीं हुई।
इस अनिर्णायक हल्दीघाटी का युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने प्रण लिया की मातृभूमि की रक्षार्थ विजय पताका फहराने तक महलों में नहीं रहने व जंगल क्षेत्र में रहने का प्रण लिया। इसी प्रण के दौरान मगरांचल राज्य के मनकियावास, कालागुमान, दिवेर, छापली, काजलवास आदि जगह समय बिताया। इसी बीच गोरमघाट की वादियों में महाराणा प्रताप ने तपोभूमि काजलवास की ओर रुख किया तो तपोभूमि काजलवास के सिद्ध मुनि से आशीर्वाद मिला और कहा कि मेवाड़ की विजय का पताका मगरांचल राज्य के स्थानीय लोगों के सहयोग से होगी, तब तक आपको मगरांचल राज्य में अपनी युद्ध की कार्ययोजना बनानी होगी। इस आशीर्वाद के फलस्वरूप महाराणा प्रताप ने मेवाड़ और मारवाड़ के मध्य छापली गांव के समीप स्थित “सेफ हाऊस” के नाम से प्रसिद्ध गोकुलगढ़ छापली में अपना पड़ाव डाला, जहाँ पर युद्ध की पूरी कार्य योजना के साथ स्थानीय मगरांचल के राजपूत समुदाय के लोगों से सहयोग लिया। महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि मेवाड़ को मुक्त कराने का अभियान दिवेर-छापली से प्रारंभ किया।
उस समय दिवेर के शाही थाने का मुख्तार अकबर का काका ‘सुल्तान खां’ था। विजयादशमी के दिन २६ अक्टूबर, १५८२ को राणाकड़ा (दिवेर घाटा), राताखेत (उड़ेश्वर महादेव मंदिर छापली के दक्षिण-पूर्व में स्थित मैदान) आदि स्थानों पर राणा प्रताप की सेना तथा मुगल सेना के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। इस युद्ध में अमरसिंह, स्थानीय रावत-राजपूतों की संगठित सेना ने मुगल सैनिकों पर जबरदस्त भीषण प्रहार किया जिससे भारी तादात में मुगल सैनिक हताहत हुए। इस भीषण महासंग्राम में महाराणा प्रताप तथा उनके पुत्र अमरसिंह ने अत्यधिक शूरवीरता दिखाई। दिवेर थाने के मुगल अधिकारी सुल्तानखां को कुं. अमरसिंह ने जा घेरा और उस पर भाले का ऐसा वार किया कि वह सुल्तान खां को चीरता हुआ घोड़े के शरीर को पार कर गया। घोड़े और सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। वहीं महाराणा प्रताप ने अपनी तलवार के एक ही वार से सेनापति बहलोल खां और उसके घोड़े को जिरह बरन्तर सहित दो भागों में काट डाला। स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि “मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया करते हैं।”
अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुगल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने अजमेर तक मुगलों को खदेड़ा। भीषण युद्ध के बाद बचे ३६ हजार मुगल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
इस युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। यह महाराणा की विजय इतनी कारगर सिद्ध हुई कि इससे मुगल थाने जो सक्रिय या निष्क्रिय अवस्था में मेवाड़ में थे जिनकी संख्या 36 बतलाई जाती है, यहां से उठ गए। शाही सेना जो यत्र-तत्र कैदियों की तरह पडी हुई थी, लड़ती, भिड़ती, भूखे मरते उलटे पांव मुगल इलाकों की तरफ भाग खड़ी हुई। यहां तक कि १५८५ ई. के बाद अकबर भी उत्तर – पश्चिम की समस्या के कारण मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया, जिससे महाराणा को अब चावंड में नवीन राजधानी बनाकर लोकहित में जुटने का अच्छा अवसर मिला।
दिवेर-छापली युद्ध का महत्व
यह युद्ध मेवाड़ तथा मुगलों के बीच निर्णायक युद्ध था। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। आज महाराणा प्रताप की जो ख्याति पूरे विश्व में है, उस ख्याति में दिवेर-छापली के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता। यह दिवेर-छापली युद्ध ही था जिसने महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा को हमेशा के लिए अमर कर दिया। ये दिवेर-छापली तथा मगरांचल के वीर रावत-राजपूत ही थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के नेतृत्व में युद्ध में अदम्य शौर्य एवं साहस का परिचय देते हुए मुगलों को हमेशा के लिए खदेड़ दिया। इसी का परिणाम था कि मुगल सेना मेवाड़ में स्थापित ३६ थानों को छोड़कर चली गयी। इस युद्ध में मगरांचल के राजपूतों ने प्रताप का भरपूर सहयोग दिया था फलतः बाद में दिवेर का ठिकाना वरावत श्री बाघाजी को प्रदान किया, वहीं बल्ला राजपूतों को भदेसर का ठिकाना एवं सोलंकियो व प्रतिहार राजपूतों को नरदास का गुडा के समीप के पट्टे प्रदान किये।
इसी विजय के फलस्वरूप कर्नल टाॅड ने जहां हल्दीघाटी को ‘थर्मापाइल(Thermopile)’ कहा है वही दिवेर-छापली के युद्ध को ‘मेरोथान(Marathon)’ की संज्ञा दी है। जिस प्रकार एथेन्स जैसी छोटी इकाई ने फारस की बलवती शक्ति को ‘मेरॉथन’ में पराजित किया था, उसी प्रकार मेवाड़ जैसे छोटे राज्य ने मुगल राज्य के वृहत सैन्यबल को दिवेर-छापली में परास्त किया। महाराणा की दिवेर-छापली विजय की दास्तान सर्वदा हमारे देश की प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।
प्राकृतिक वातावरण
अरावली की उपत्यकाओं के मध्य छापली कुछ समतल व उबड़-खाबड़ धरातल पर समुद्रतल से २३८० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान पूर्व दिशा में प्रवाहित होने वाली खारी नदी का उद्गम स्थल है। यहां पर मारवाड़-मेवाड़ को जोड़ने वाला मार्ग ऊंड़ाबेरी की नाल के नाम से जाना जाता है। पूरे वर्ष यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, जलप्रपात, ताल-तलैया की स्थिति मन को मोहती है। यहां पर आम, बरगद, पीपल, ढाक आदि पेड़ो के झुरमुट ग्रीष्म ऋतु में भी ठंडक का एहसास दिलाते है। यहां की हरियाली भरा वातावरण माउन्ट आबू की तरह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
दिवेर-छापली रणस्थली से जुड़े हुए स्थल
जोगमण्डी :
काछबली वन क्षेत्र में गोरमघाट के समीप क्षेत्र जहाँ कहा जाता है कि योगी रूपनाथ ने महाराणा प्रताप तिरछे अक्षरको गुप्त वेश में घुमते हुए पहचाना एवं विजयश्री का आशीर्वाद दिया था।
गोकुलगढ़ :
छापली वन क्षेत्र में स्थित प्रताप की गुप्त राजधानी जहाँ सभी योजनाएँ बनी। यह किला आज भी खण्डहर रूप में विद्यमान है।
उडेश्वरमहादेव मन्दिर :
छापली तालाब के नीचे की तरफ स्थित मन्दिर, जहाँ महाराणा प्रताप ने युद्ध पूर्व पूजा अर्चना की तथा युद्ध में विजयी होने के बाद पुनः यहीं आकर पूजा की। राणा कड़ा (दिवेर घाटा) – वर्तमान दिवेर घाटा जहाँ सर्वप्रथम मुगलों से निर्णायक संघर्ष हुआ। इसी क्षेत्र में आडा मथारा नामक पहाड़ी पर खड़े होकर महाराणा ने आक्रमण का ऐलान किया।
राताखेत :
उडेश्वर महादेव मन्दिर के दक्षिण पूर्व में स्थित मैदान, जहाँ मुगल सेना से कड़ा खूनी संघर्ष हुआ। यहां असंख्य सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए और धरती खून से लाल हो गयी, इसी कारण इस क्षेत्र का नाम राताखेत पड़ा। यहीं पर अमरसिंह ने सुल्तान खां को घोड़े सहित बींध दिया। आज भी यह क्षेत्र राताखेत कहलाता है।
हाथीभाटा :
छापली तालाब के पास स्थित वह स्थान जहाँ महाराणा प्रताप ने अपनी तलवार के एक ही वार से सेनापति बहलोल खां और उसके घोड़े को जिस्ह बख्तर सहित दो भागों में काट डाला। इस घटना से पूर्व यहाँ प्रताप के वीर सैनिक ने बहलोल खाँ पर आक्रमण कर उसके हाथी का पाँव काट दिया। इसी पत्थर (चट्टान) के पास गिरकर उस हाथी ने प्राण त्याग दिये, इसलिए यह पत्थर (चट्टान) हाथीभाटा कहा जाता है। हाथीभाटा के पास रावत दूदा व एक बल्ला सिपाही के धड़ गिरे जो कि ऐतिहासिक तथ्य है।
राणाका ढाणा :
छापली के पश्चिम में गोकुलगढ़ की ओर स्थित खण्डहर जहाँ महाराणा प्रताप ने निवास किया था।
पंचमहुआ :
छापली तालाब व राणाकड़ा घाट के मध्य स्थित स्थान है जहां युद्ध युद्ध क्षेत्र में मारे गये नागा साधुओं की समाधियां आज भी विद्यमान है।
छापली :
महाराणा प्रताप ने युद्ध में छापामार पद्धति से युद्ध किया था, इसी कारण गांव का नाम छापलिया (छापली) रखा गया। दिवेर-छापली क्षेत्र के रावत-राजपूत छापामार पद्धति में माहिर थे और उनकी इसी पद्धति ने प्रताप को विजयश्री दिलायी। पूर्व में इस गांव का नाम धोरण था।
गोरीधाम :
बाघाना क्षेत्र में स्थित शक्ति स्थल जहाँ महाराणा प्रताप पुजा हेतु जाते थे।
बस्सी :
यहाँ भी प्रताप के वीरों की दो छतरियां आज भी मौजूद है।।
!जय राजा रामचंद्रजी की !
!जय क्षात्र धर्म!
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हमें तो खाली हल्दीघाटी का युद्ध ही पढ़ाते हैं। दिवेर युद्ध का नाम तो अब बड़े होकर जाना। हमारी स्कूल की किताबों में बहुत जल्दी सुधार की जरूरत है।
It’s sad that we are only taught till Haldighati battle and not beyond this. This was truly Diwer battle which shaped the destiny of Hindus in India.
Jai Maharana Pratap!