स्वयं बाबा भोलेनाथ ने इस भूलोक में ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए एक महाकुंजिका स्तोत्र की रचना अपने मुख से की थी। जो भक्त इस मंत्र को नित्य उनका ध्यान करके पढ़ेगा, उसे इस संसार में धन-धान्य, समृद्धि, सुख-शांति और निर्भय जीवन व्यतीत करने के समस्त साधन प्राप्त होंगे। यह एक गुप्त मंत्र है। इसके पाठ से भक्त के ऊपर किया हुआ समस्त व्यभिचार कर्म स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं | इसके पाठ से मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि उद्देश्यों की भी पूर्ति होती है। इसके पाठ से सम्पूर्ण दुर्गा शप्तशती के पाठ का फल प्राप्त होता है | यह मंत्र कुछ इस तरह हैः—
शिव उवाच–
शृणु देवी प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम |
येन मन्त्रप्रभावेण चंडीजापः शुभो भवेत || १ ||
न कवचं नार्गालास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम |
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम || २ ||
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत |
अति गुह्यतरं देवी देवानापि दुर्लभम || ३||
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वती |
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम |
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम || ४ ||
अथ मन्त्रः —
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चमुण्डायै विच्चे।। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनी ।
नम: कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनी ।।
नमस्ते शुम्भहन्त्रयै च निशुम्भासुरघातिनि।
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे ।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका।। ३ ||
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तु ते ।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ।।
धां धीं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरू ।।
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नम: ।।
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा ।।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।।म्लां म्लीं, म्लूं मूल विस्तीर्ण कुन्जिकाए नमो नमः
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरूष्व मे ।।
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे |
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वती ||
यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् ।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।।…
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