रूप का फेर
शनक और अभिप्रतारी नाम के दो ऋषि वायु देवता के उपासक थे। एक दिन दोपहर को दोनों ने भोजन तैयार किया। भोजन बना ही था कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। बाहर एक युवा ब्रह्मचारी भोजन मांग रहा था।
‘नहीं भैया इस वक्त नहीं है।’ उत्तर मिला। युवक के लिए इनकार कोई नई बात नहीं थी, किंतु एक ऋषि के आश्रम से ऐसा उत्तर पाकर उसे आश्चर्य हुआ।
उसने ऋषि से पूछा, ‘मान्यवर! क्या मैं जान सकता हूं कि आप किस देवता के उपासक हैं?’
एक ऋषि ने कहा, ‘मेरा इष्टदेव वायु है, जिसे प्राण भी कहा जाता है।’
ब्रह्मचारी ने कहा, ‘तब तो आप यह जरूर जानते होंगे कि यह संसार प्राण को ही धारण किए हुए है और अंत में यह प्राण ही में विलीन हो जाता है। यह प्राण प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी में व्याप्त है।’
ऋषि ने कहा, ‘यह बात तो सभी को पता है। निश्चय ही हम जानते हैं, तुम नई बात नहीं कह रहे।’
अगला प्रश्न था, ‘क्या मैं जान सकता हूं कि यह भोजन आपने किसके लिए पकाया है?’
‘अपने इष्टदेव के लिए पकाया है,’ ऋषि ने झट उत्तर दिया।
‘यदि प्राण ही इस संसार में व्याप्त है, तो वह मुझमें भी वैसे ही मौजूद हैं, क्योंकि मैं भी सृष्टि का एक भाग हूं। वही प्राण इस भूखे शरीर में भी निवास करता है, जो आपके सामने कुछ भोजन की भिक्षा मांग रहा है। तो महामना ऋषियो! मुझे भोजन देने से इनकार करते हो,जिसके लिए तुमने इसे पकाया है?’ नौजवान ने दिल में चुभने वाली बात कह दी।
ब्रह्मचारी की इस बात पर दोनों ऋषि बहुत लज्जित हुए और उन्होंने उस ब्रह्मचारी को सम्मान पूर्वक भीतर बुलाकर हाथ-मुंह धुलाकर संध्या-तर्पण को जल दिया। उसके बाद उसको अपने साथ बिठाकर भोजन कराया। उन्होंने अनुभव किया कि वह केवल रूप या प्रत्यक्ष के फेर में पड़े थे और तत्व या प्रकृति से अनभिज्ञ थे, जो वास्तव में समझने योग्य है।
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