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तुलसीदास के दोहे-7: आत्म अनुभव

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जद्यपि जग दारून दुख नाना।सब तें कठिन जाति अवमाना।

इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है।

रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।

बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये।राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है।

भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।

जब इ्र्रश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान पिता काल के समान और रस्सी साॅप के समान हो जाती है।

सासति करि पुनि करहि पसाउ।नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।

अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः बाद में सेवक पर कृपा करते हैं।

सुख संपति सुत सेन सहाई।जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।
नित नूतन सब बाढत जाई।जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।

सुख धन संपत्ति संतान सेना मददगार विजय प्रताप बुद्धि शक्ति और प्रशंसा -जैसे जैसे नित्य बढते हैं-वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता हैै।

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी।नहि पावहिं परतिय मनु डीठी।
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं।ते नरवर थोरे जग माहीं।

ऐसे बीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृश्टि कभी नहीं जाता और भिखारी कभी जिनके यहाॅ से खाली हाथ नहीं लौटते ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं।

टेढ जानि सब बंदइ काहू।वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।

टेढा जानकर लोग किसी भी ब्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं। टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है।

सेवक सदन स्वामि आगमनु।मंगल मूल अमंगल दमनू।

सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और अमंगलों का नाश करने बाला होता है।

काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि
तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।

भरत की माॅ हॅसकर कहती हैं-कानों लंगरों और कुवरों को कुटिल और खराब चालचलन बाला जानना चाहिये।

कोउ नृप होउ हमहिं का हानि।चेरी छाडि अब होब की रानी।

कोई भी राजा हो जाये-हमारी क्या हानि है। दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउंगी।

तसि मति फिरी अहई जसि भावी।

जैसी भावी होनहार होती है-वैसी हीं बुद्धि भी फिर बदल जाती है।

रहा प्रथम अब ते दिन बीते।समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।

पहले बाली बात बीत चुकी है-समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।

अरि बस दैउ जियावत जाही।मरनु नीक तेहि जीवन चाहीै।

ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।

सूल कुलिस असि अॅगवनिहारे।ते रतिनाथ सुमन सर मारे।

जो ब्यक्ति त्रिशूल बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुश्पवान से मारे जाते हैं।

कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।

किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है, जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नश्ट कर देती है।

दुइ कि होइ एक समय भुआला।हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला।
दानि कहाउब अरू कृपनाई।होइ कि खेम कुसल रीताई।

ठहाका मारकर हॅसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एकहीं समय मेंसम्भव नहीं है। दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कथमपि सम्भव नही है।

सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ।सब बिधि अगहु अगाध दुराउ।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई।जानि न जाइ नारि गति भाई।

स्त्री का स्वभाव समझ से परे अथाह और रहस्यपूर्ण होता है। कोई अपनी परछाई भले पकड ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है।

काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ।

अग्नि किसे नही जला सकती है।समुद्र में क्या नही समा सकता है। अवला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है। संसार में काल किसे नही खा सकता है।

जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते।पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।पति विहीन सबु सोक समाजू।

पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं। शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं।

सुभ अरू असुभ करम अनुहारी।ईसु देइ फल हृदय बिचारी।
करइ जो करम पाव फल सोई।निगम नीति असि कह सबु कोई।

ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है। ऐसा हीं वेद नीति और सब लोग कहते हैं।

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।निज कृत करम भोग सबु भ्राता।

कोई भी किसी को दुख सुख नही दे सकता है। सबों को अपने हीं कर्मों का फल भेागना पड़ता है।

जोग वियोग भोग भल मंदा।हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।
जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू।संपति बिपति करमु अरू कालू।

मिलाप और बिछुड़न अच्छे बुरे भोग शत्रु मित्र और तटस्थ -ये सभी भ्रम के फाॅस हैं।जन्म मृत्यु संपत्ति विपत्ति कर्म और काल-ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं।

बिधिहुॅ न नारि हृदय गति जानी।सकल कपट अघ अवगुन खानी।

स्त्री के हृदय की चाल ईश्वर भी नहीं जान सकते हैं। वह छल कपट पाप और अवगुणों की खान है।

सुनहुॅ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ।

मुनिनाथ ने अत्यंत दुख से भरत से कहा कि जीवन में लाभ नुकसान जिंदगी मौत प्रतिश्ठा या अपयश सभी ईश्वर के हाथों में है।

विशय जीव पाइ प्रभुताई।मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।

मूर्ख साॅसारिक जीव प्रभुता पा कर मोह में पड़कर अपने असली स्वभाव को प्रकट कर देते हैं।

जग बौराइ राज पद पाएॅ।

राजपद प्राप्त होने पर सारा संसार मदोन्नमत्त हो जाता है।

रिपु रिन रंच न राखब काउ।

शत्रु और ऋण को कभी भी शेस नही रखना चाहिये। अल्प मात्रा में भी छोड़ना नही चाहिये।

लातहुॅ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।

धूल जैसा नीच भी पैर मारने पर सिर चढ़ जाता है।

अनुचित उचित काजु किछु होउ।समुझि करिअ भल कह सब कोउ।
सहसा करि पाछें पछिताहीं।कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।

किसी भी काम में उचित अनुचित विचार कर किया जाये तो सब लोग उसे अच्छा कहते हैं। बेद और विद्वान कहते हैं कि जो काम विना विचारे जल्दी में करके पछताते हैं-वे बुद्धिमान नहीं हैं।

विशई साधक सिद्ध सयाने।त्रिविध जीव जग बेद बखाने।

संसारी साधक और ज्ञानी सिद्ध पुरूश-इस दुनिया में इसी तीन प्रकार के लोग बेदों ने बताये हैं।

सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल
जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।

अमृत मात्र सुनने की बात है कितुं जहर तो सब जगह प्रत्यक्षतः देखे जा सकते हैं। कौआ उल्लू और बगुला तो जहाॅ तहाॅ दिखते हैं परन्तु हॅस तो केवल मानसरोवर में हीं रहते हैं।

सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा ।बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा।
तो सृजि पालई हरइ बहोरी।बालकेलि सम बिधि मति भोरी।

ईश्वर की चाल अत्यंत विपरीत एवं विचित्र है। वह संसार की सृश्टि उत्पन्न करता और पालन और फिर संहार भी कर देता है।
ईश्वर की बुद्धि बच्चों जैसी भोली विवेक रहित हैं।

कसे कनकु मनि पारिखि पाएॅं। पुरूश परिखिअहिं समयॅ सुभाएॅ।

सोना कसौटी पर कसने और रत्न जौहरी के द्वारा हीं पहचाना जाता है।पुरूश की परीक्षा समय आने पर उसके स्वभाव चरित्र से होती है।

सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।

बिना कारण हीं दूसरों की भलाई करने बाले बुद्धिमान और श्रेश्ठ मालिक से बहुत कहना गल्ती होता है।

धीरज धर्म मित्र अरू नारी।आपद काल परिखिअहिं चारी।
बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना।अंध बधिर क्रोधी अतिदीना।

धैर्य धर्म मित्र और स्त्री की परीक्षाआपद या दुख के समय होती हैै। बूढ़ा रोगी मूर्ख गरीब अन्धा बहरा क्रोधी और अत्यधिक गरीब सबों की परीक्षा इसी समय होती है।

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।

कलियुग अनेक कठिन पापों का भंडार है जिसमें धर्म ज्ञान योग जप तपस्या आदि कुछ भी नहीं है।

मैं अरू मोर तोर तैं माया।जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया।

में और मेरा तू और तेरा-यही माया है जिाने सम्पूर्ण जीवों को बस में कर रखा है।

सेवक सुख चह मान भिखारी ।व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी।नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी।

सेवक सुख चाहता है भिखारी सम्मान चाहता है। व्यसनी धन और ब्यभिचारी अच्छी गति लोभी यश और अभिमानी चारों फल अर्थ काम धर्म और मोक्ष चाहते हैं तो यह असम्भव को सम्भव करना होगा।

रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।

शत्रु रोग अग्नि पाप स्वामी एवं साॅप को कभी भी छोटा मानकर नहीं समझना चाहिये।

नवनि नीच कै अति दुखदाई।जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
भयदायक खल कै प्रिय वानी ।जिमि अकाल के कुसुम भवानी।

नीच ब्यक्ति की नम्रता बहुत दुखदायी होती हैजैसे अंकुश धनुस साॅप और बिल्ली का झुकना।दुश्ट की मीठी बोली उसी तरह डरावनी होती है जैसे बिना ऋतु के फूल।

कबहुॅ दिवस महॅ निविड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।

बादलों के कारण कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रगट हो जाते हैं।जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नश्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है।

भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।

सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये।किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।

हित मत तोहि न लागत कैसे।काल विबस कहुॅ भेसज जैसे।

भलाई की बातें उसी प्रकार अच्छी नहीं लगती है जैसे मृत्यु के अघीन रहने बाले ब्यक्ति को दवा अच्छी नहीं लगती है।

उमा संत कइ इहइ बड़ाई।मंद करत जो करइ भलाई।

संत की यही महानता है कि वे बुराई करने बाले पर भी उसकी भलाई हीं करते हैं।

साधु अवग्या तुरत भवानी।कर कल्यान अखिल कै हानी।

साधु संतों का अपमान तुरंत संपूर्ण भलाई का अंत नाश कर देता है।

कादर मन कहुॅ एक अधारा।दैव दैव आलसी पुकारा।

ईश्वर का क्या भरोसा।देवता तो कायर मन का आधार है। आलसी लोग हीं भगवान भगवान पुकारा करते हैं।

सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती।सहज कृपन सन सुंदर नीती।

मूर्खसे नम्रता दुश्ट से प्रेम कंजूस से उदारता के सुंदर नीति विचार ब्यर्थ होते हैं।

ममता रत सन ग्यान कहानी।अति लोभी सन विरति बखानी।
क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा।उसर बीज बएॅ फल जथा।

मोह माया में फॅसे ब्यक्ति से ज्ञान की कहानी अधिक लोभी से वैराग्य का वर्णन क्रोधी से शान्ति की बातें और कामुक से ईश्वर की बात कहने का वैसा हीं फल होता है जैसा उसर खेत में बीज बोने से होता है।

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।

करोड़ों उपाय करने पर भी केला काटने पर हीं फलता है। नीच आदमी विनती करने से नहीं मानता है-वह डाॅटने पर हीं झुकता- रास्ते पर आता हैं।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे।जे आचरहिं ते नर न घनेरे।

दूसरों को उपदेश शिक्षा देने में बहुत लोग निपुण कुशल होते हैं परन्तु उस शिक्षा का आचरण पालन करने बाले बहुत कम हीं होते हैं।

संसार महॅ त्रिविध पुरूश पाटल रसाल पनस समा
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं।

संसार में तीन तरह के लोग होते हैं-गुलाब आम और कटहल के जैसा। एक फूल देता है-एक फूल और फल दोनों देता है और एक केवल फल देता है। लोगों मे एक केवल कहते हैं-करते नहीं।दूसरे जो कहते हैं वे करते भी हैं और तीसरे कहते नही केवल करते हैं।

नयन दोस जा कहॅ जब होइ्र्र।पीत बरन ससि कहुॅ कह सोई।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा।सो कह पच्छिम उपउ दिनेसा।

जब किसी को आॅखों में दोस होता है तो उसे चन्द्रमा पीले रंग का दिखाई पड़ता है। जब पक्षी के राजा को दिशाभ्रम होता है तो उसे सूर्य पश्चिम में उदय दिखाई पड़ता है।

नौका रूढ़ चलत जग देखा।अचल मोहबस आपुहिं लेखा।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी।कहहिं परस्पर मिथ्यावादी।

नाव पर चढ़ा हुआ आदमी दुनिया को चलता दिखाई देता है लेकिन वह अपने को स्थिर अचल समझता है। बच्चे गोलगोल घूमते है लेकिन घर वगैरह नहीं घूमते।लेकिन वे आपस में परस्पर एक दूसरे को झूठा कहते हैं।

एक पिता के बिपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता।कोउ घनवंत सूर कोउ दाता।

एक पिता के अनेकों पुत्रों में उनके गुण और आचरण भिन्न भिन्न होते हैं। कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है।

कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई।सब पर पितहिं प्रीति समहोई।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।सपनेहुॅ जान न दूसर धर्मा।

कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है।पिता सब पर समान प्रेम करते हैं। पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता।

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।जद्यपि सो सब भाॅति अपाना।
एहि बिधि जीव चराचर जेते।त्रिजग देव नर असुर समेते।

तब वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्यारा होता है भले हीं वह सब तरह से मूर्ख हीं क्यों न हो। इसी प्रकार पशु पक्षी देवता आदमी एवं राक्षसों में भी जितने चेतन और जड़ जीव हैं।

जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहि प्रीती।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई।जिमि खगपति जल कै चिकनाई।

किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की कमी से प्रेम नहीं होता।प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है।

सोहमस्मि इति बृति अखंडा।दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।तब भव मूल भेद भ्रमनासा।

मैं ब्रम्ह हूॅ-यह अनन्य स्वभाव की प्रचंड लौ है। जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है।

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक।

सच्चा ज्ञान कहने समझने में मुशकिल एवं उसे साधने में भी कठिन है। यदि संयोग से कभी ज्ञान हो भी जाता है तो उसे बचाकर रखने में अनेकों बाधायें हैं।

ग्यान पंथ कृपान कै धारा ।परत खगेस होइ नहिं बारा।
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई।सो कैवल्य परम पद लहईं ।

ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार की धार के जैसा है।इस रास्ते में भटकते देर नही लगती। जो ब्यक्ति बिना विघ्न बाधा के इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है वह मोक्ष के परम पद को प्राप्त करता है।

नहिं दरिद्र सम दुख जग माॅहीं।संत मिलन सम सुख जग नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया।संत सहज सुभाउ खगराया।

संसार में दरिद्रता के समान दुख एवं संतों के साथ मिलन समान सुख नहीं है। मन बचन और शरीर से दूसरों का उपकार करना यह संत का सहज स्वभाव है।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।
काम वात कफ लोभ अपारा।क्रोध पित्त नित छाती जारा।

अज्ञान सभी रोगों की जड़ है।इससे बहुत प्रकार के कश्ट उत्पन्न होते हैं। काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है।क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है।

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  3. तुलसीदास के दोहे-3: भक्ति
  4. तुलसीदास के दोहे-4: गुरू महिमा
  5. तुलसीदास के दोहे-5-अहंकार
  6. तुलसीदास के दोहे-6: संगति
  7. तुलसीदास के दोहे-7: आत्म अनुभव
  8. तुलसीदास के दोहे-8: कलियुग
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