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श्री धरा चालीसा

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माता श्री धरा चालीसा

॥दोहा॥

धरा धर्म हित कर्म कर,जीवन मनुज सुधार।
संरक्षण भू का किए, भव जीवन आधार।।

॥चौपाई॥

प्रथम नमन करता हे गजमुख। वीणापाणी शारद मम सुख।।
गुरु पद कमल नमन गौरीसा। आज लिखूँ धरती चालीसा।।१

नमन धरा हित कोटि हमारा। जिस पर गुजरे जीवन सारा।।
मात समान धरा आचरनी। धरा हेतु हो जीवन करनी।।२

सहती विपुल भार यह धरती। सब जीवों का पोषण करती।।
धरती को हम माँ सम मानें। माँ की महिमा सभी बखानें।।३

सागर सरिता कूप सरोवर। जल के स्रोते धरा धरोहर।।
धरा धरे सब को तन अपने। होती नहीं कुपित भू सपने।।४

कानन पथ पर्वत घर घाटी। सभी समाहित वसुधा माटी।।
अनुपम धीरज रखती माई। भूमि तभी धरणी कहलाई।।५

भू को चंदा सूरज प्यारे। दिनकर दिवस रात उजियारे।।
तल पर दीपक ऊपर तारें। महके महके बाग बहारें।।६

जल थल अन्न खनिज सब धारे। उपवन पौधे भवन हमारे।।
धन्य धरा हर धर्म निभाती। नेह निभाने वर्षा आती।।७

मेह संग हरियाली छाये। खेत खेत फसलें लहराये।।
सागर नदिया ताल तलाई। नीर धरा पर जगत भलाई।।८

चंदा निशा तिमिर को हरते। मामा कह हम आदर करते।।
ध्रुव तारा उत्तर दिशि अविचल। उड़गन भोर निहारे खगकुल।।९

देश राज्य झगड़ों के खतरे। मानव निज निज स्वारथ उतरे।।
पर्यावरण प्रदूषित मत कर। मानव बन पृथ्वी का हितकर।।१०

धरती जन जीवन है देती। बदले में कब किस से लेती ।।
पृथ्वी पर तुम पेड़ लगाओ। चूनरधानी फसल उगाओ।।११

पृथ्वी तल पर अन्न उगाये। खेतों में हरियाली लाये।।
धरापूत हैं कृषक हमारे। उनके भी अधिकार विचारे।।१२

धरती माँ का जन्म विधाता। दिनकर दिन भर तेज लुटाता।।
रवि की ऊर्जा बहुत जरूरी। वरना हिम हो धरती पूरी।।१३

अम्बर धरती कल्पित मिलते। साँझ सवेर क्षितिज मिलि दिखते।।
ऋतुओं के मन रंग बिखेरे। भँवरे वन तितली बहुतेरे।।१४

अग्नि पवन जल अरु आकाशा। धरा मिले बिन जीव निराशा।।
प्राणवायु जल मात्र धरा पर। इसी लिए है जीव इरा पर।।१५

धरा सदा मानुष हितकारी। करें प्रदूषण अत्याचारी।।
भू से शीघ्र प्रदूषण खोवे। जीवन दीर्घ धरा का होवे।।१६

कार्बन गैस भार बढ़ जाये। छिद्र बढ़े ओजोन नसाये।।
परत ओजोन विकिरण रक्षण। पर्यावरण करे संरक्षण।।१७

धुँआ उड़े राकेट उड़ाये। धरा प्रदूषण जहर मिलाये।।
धरा वायु ध्वनि नीर प्रदूषण। सागर नभ तक मनु के दूषण।।१८

वन्य पेड़ धरती के भूषण। मत फैलाओ मनुज प्रदूषण।।
सागर नदियाँ शान हमारी। गगन उपग्रह नव संचारी।।१९

धरती माँ की रख पावनता। नभ से भी रिश्ता जो बनता।।
कंकरीट के जंगल गढ़ते। भवन सड़क पटरी ज्यों बढ़़ते।।२०

हरे पेड़ रोजाना कटते। चारागाह वन्य वन घटते।।
दोहन खनिज,नीर,अरु प्राकृत। समझ मानवी, भू का आवृत।।२१

धरती कभी संतुलन खोती। भूकम्पन हानि बड़ी होती।।
हम जब पृथ्वी दिवस मनावें। धरा गगन सौगंध उठावें।।२२

अगड़े देश करें मनमानी। हथियारों की खेंचा तानी।।
नभ धरती दोनों की मूरत। नित करते रहते बदसूरत।।२३

अणु परमाणु परीक्षण चलते। गगन धरा लाचारी तकते।।
घातक उनकी यह प्रभुताई। स्वारथ सत्ता करे ठिठाई।।२४

रहते विपुल खनिज वसुधा तल। सीमित दोहन करना अविरल।।
जल और खनिज बचाना कल को। मनुता हित टालो अनभल को।।२५

रवि की दे परिक्रमा धरती। जिससे ऋतुएँ बदला करती।।
घूर्णन करती धरा अक्ष पर। दिन अरु रात करे यों दिनकर।।२६

चंदा है उपग्रह श्यामा का। दे परिक्रमा पद मामा का।।
कभी तिमिर अरु कभी उजाले। नेह प्रीत रिश्तों की पाले।।२७

पृथ्वी पर गिरिराज हिमालय। गौरी, पति के संग शिवालय।।
देव धाम हरि मंदिर बसते। कण कण में परमेश्वर रमते।।२८

बहुत क्षेत्र भू पर बर्फीला। कहीं पठारी अरु रेतीला।।
गर्मी अधिक कहीं सम ठंडक। बहु आबादी या बस दंडक।।२९

खनिज तेल धरती से निकले। नदी नीर हित हिमगिरि पिघले।।
बहुत धातुओं की बहु खानें। भू की माया भू ही जानें।।३०

ईश्वर ले अवतार धरा पर। भू हित मारे अधम निसाचर।।
पैगम्बर, गौतम अरु ईसा। प्रकटे राम कृष्ण जगदीशा।।३१

अण्डाकार कहें विज्ञानी। नाप जोख अरु भार प्रमानी।।
शक्ति गुरुत्व केन्द्र मे रखती। यान उपग्रह गति बल जगती।।३२

रूप वराह विष्णु धरि धाए। वसुधा को तल से ले आए।।
ऐसे कही बात ग्रन्थों में। भिन्न मते भू पर पन्थों में।।३३

कुछ रेखा अक्षांश बनाती। पूरव से पश्चिम तक जाती।।
उत्तर से दक्षिण देशांतर। कल्पित रेखा कहें समांतर।।३४

तीन भाग भू जल महासागर। एक भाग थल मात्र धरा पर।।
थल पर बसे जीव बहु पाखी। विविध वनस्पति आयुष साखी।।३५

देश राज्य सीमा सरकारें। सैनिक रक्षा हित ललकारें।।
हैं दुर्भाग्य मनुज के देखे। भू रक्षण हित क्या अभिलेखे।।३६

मानवता भू प्राकृत जन हित । कवि ने कविता रची यथोचित।।
इन बातों को जो अपनाले। भू पर खुशियाँ रहे उजाले।।३७

धरा बचे यह ठान मनुज अब। करले अपने आज जतन सब।।
भूजल वर्षा जल संरक्षण। तरु वन वन्य हेतु आरक्षण।।३८

धरा मात्र पर जीवन यापन। चेतन जीव जन्तु जड़ कानन।।
धरा मात का नित कर वंदन। अभिनंदन भू के हर नंदन।।३९

चालीसा रचि धरती माता। वंदन जग के जीवन दाता।।
शर्मा बाबू लाल बताई। लिखकर चारु छंद चौपाई।।४०

॥दोहा॥


शीश दिए उतरे नहीं, धरा मात के कर्ज।
पृथ्वी रक्षण कर सखे, पूरे जीवन फर्ज।।

रचनाकार: बाबू लाल शर्मा “बौहरा”, सिकंदरा, दौसा,राज.

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