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ऋषि अत्रि कृत श्री राम स्तुति-नमामि भक्त वत्सलं अर्थ सहित

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प्रभु श्री राम -ऋषि अत्रि मिलन प्रसंग

श्री रामचरितमानस में अरण्य कांड में एक प्रसंग आता है जिसमें प्रभु श्री राम अत्रि ऋषि से मिलते हैं ; तब ऋषि अत्रि प्रभु की बड़ी भाव पूर्ण स्तुति करते हैं। यहाँ पर हम वही स्तुति अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥

भावार्थ : (इसलिए) सब मुनियों से विदा लेकर सीताजी सहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजी के आश्रम में गए, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए॥

पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥

भावार्थ : शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौड़े। उन्हें दौड़े आते देखकर श्री रामजी और भी शीघ्रता से चले आए। दण्डवत करते हुए ही श्री रामजी को (उठाकर) मुनि ने हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं के जल से दोनों जनों को (दोनों भाइयों को) नहला दिया॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥

भावार्थ : श्री रामजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रम में ले आए। पूजन करके सुंदर वचन कहकर मुनि ने मूल और फल दिए, जो प्रभु के मन को बहुत रुचे॥

सोरठा

प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥

भावार्थ : प्रभु आसन पर विराजमान हैं। नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥

ऋषि अत्रि द्वारा की गयी प्रभु श्री राम की स्तुति-English Lyrics & Hindi Meaning

नमामि भक्त वत्सलं, कृपालु शील कोमलं।
भजामि ते पदांबुजं, अकामिनां स्वधामदं॥ (१)

Namaami Bhakt vatsalam, Kripaalu sheel komalam।
Bhajaami te pada-ambujam, Akaaminaam svadhaamadam।। (1)

भावार्थ : हे प्रभु! आप भक्तों को प्रेम करने वाले-शरण देने वाले है, आप सभी पर कृपा करने वाले है, आप अत्यंत कोमल स्वभाव वाले है, मैं आपको नमन करता हूँ। हे प्रभु! आप कामना-रहित जीवों को अपना परम-धाम प्रदान करने वाले है, मैं आपके चरण कमलों का स्मरण करता हूँ। (१)

निकाम श्याम सुंदरं, भवांबुनाथ मंदरं।
प्रफुल्ल कंज लोचनं, मदादि दोष मोचनं॥ (२)

Nikaam Shyaam Sundaram, Bhava-ambunaath mandaram।
Prafull Kanj lochanan, Madaadi dosh mochanan।। (2)

भावार्थ : हे प्रभु! आप आसक्ति-रहित हैं, आप श्याम वर्ण में अति सुन्दर हैं, आप ब्रह्माण्ड को मंदराचल पर्वत के समान धारण किये हुए हैं। हे प्रभु! आपके नेत्र खिले हुए कमल के समान है, आप ही अभिमान आदि विकारों का नाश करने वाले हैं। (२)

प्रलंब बाहु विक्रमं, प्रभोऽप्रमेय वैभवं।
निषंग चाप सायकं, धरं त्रिलोक नायकं॥

Pralamba baahu vikramam, Prabho-aprameya vaibhavam।
Nishanga chaap saayakam, Dharam Triloka Naayakam।।

भावार्थ : हे प्रभु! आप लंबी भुजाओं वाले हैं, आपका पराक्रम और ऐश्वर्य कल्पना से परे हैं। हे प्रभु! आप धनुष-बाण और तुणींर (बाण रखने वाला तरकस) धारण करने वाले हैं, आप ही तीनों लोकों के स्वामी हैं। (३)

दिनेश वंश मंडनं, महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं, सुरारि वृंद भंजनं॥ (४)

Dinesh vansh mandanam, Mahesh chaap khandanam।
Muneendr Sant ranjanam, Suraari vrind Bhanjanam।। (4)

भावार्थ : हे प्रभु! आप सूर्यवंश को गौरव प्रदान करने वाले हैं, आप ही शिवजी के धनुष को तोड़ने वाले हैं। हे प्रभु! आप श्रेष्ठ मुनियों और संतों को आनंद प्रदान करने वाले हैं, आप ही देवताओं की रक्षा करने वाले और असुरों का नाश करने वाले हैं। (४)

मनोज वैरि वंदितं, अजादि देव सेवितं।
विशुद्ध बोध विग्रहं, समस्त दूषणापहं॥ (५)

Manoj vairi vanditam, Aj-aadi dev sevitam।
Vishuddh bodh vigraham, Samast dooshanaapaham।। (5)

भावार्थ :हे प्रभु! कामदेव को भस्म करने वाले शिवजी आपकी वंदना करते हैं और ब्रह्मा आदि देव आपकी सेवा करते हैं। हे प्रभु! आप विशुद्ध ज्ञान स्वरूप वाले हैं और आप ही मेरे समस्त दोषों का नाश करने वाले हैं। (५)

नमामि इंदिरा पतिं, सुखाकरं सतां गतिं।
भजे सशक्ति सानुजं, शची पति प्रियानुजं॥ (६)

Namaami Indira patim, Sukhaakaram sataam gatim।
Bhaje sashakti saanujam, Shachee pati priyaanujam।। (6)

भावार्थ :हे प्रभु! आप ही लक्ष्मी जी के स्वामी हैं, आप सभी सुखों को देने वाले हैं, हे संतो को परम गति प्रदान करने वाले मैं आपको नमन करता हूँ। आप ही शची देवी के पति इन्द्र देव के प्रिय छोटे भाई (वामन अवतार) हैं, हे प्रभु! मैं आपका शक्ति स्वरूप श्री सीता जी और छोटे भाई श्री लक्ष्मण जी सहित स्मरण करता हूँ। (६)

त्वदंघ्रि मूल ये नराः, भजंति हीन मत्सराः।
पतंति नो भवार्णवे, वितर्क वीचि संकुले॥ (७)

Tvadanghri moola yē naraḥ, Bhajanti heena matsaraḥ।
Patanti no Bhav-aarṇave, Vitarka veechi sankule।। (7)

भावार्थ :हे प्रभु! जो मनुष्य ईर्ष्या-रहित होकर आपके चरण कमलों का निरन्तर स्मरण करते हैं, वह मनुष्य फिर से भयंकर लहरों वाले संसार रूपी सागर में नहीं गिरते हैं (पुनर्जन्म को प्राप्त नही होते हैं)। (७)

विविक्त वासिनः सदा, भजंति मुक्तये मुदा।
निरस्य इंद्रियादिकं, प्रयांति ते गतिं स्वकं॥ (८)

Vivikt vaasinah sada, Bhajanti muktaye muda।
Nirasy indriyaadikam, Prayaanti te gatim svakam।। (8)

भावार्थ :हे प्रभु! प्रसन्नता पूर्वक एकान्त स्थान में रहने वाले जो मनुष्य मोक्ष के लिए आपका निरन्तर ध्यान करते हैं, वह मनुष्य इन्द्रिय-विषयों से आसक्ति-रहित होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। (८)

तमेकमद्भुतं प्रभुं, निरीहमीश्वरं विभुं।
जगद्गुरुं च शाश्वतं, तुरीयमेव केवलं॥ (९)

Tamekam-adbhutam Prabhum, Nireeham-Eeshvaram Vibhum।
Jagadgurum cha Shaashvatam, Tureeyamev kevalam।। (9)

भावार्थ :हे प्रभु! आप ही इस जड़ रूपी संसार में एक मात्र चेतन स्वरूप हैं, आप आसक्ति-रहित सर्वव्यापी ईश्वर हैं। हे प्रभु! आप ही शाश्वत जगदगुरु हैं, आप ही केवल अपने वास्तविक स्वरूप को जानने वाले हैं। (९)

भजामि भाव वल्लभं, कुयोगिनां सुदुर्लभं।
स्वभक्त कल्प पादपं, समं सुसेव्यमन्वहं॥ (१०)

Bhajaami bhaav vallabham, Kuyoginaam sudurlabham।
Svabhakt kalp paadapam, Samam Susevyam-anvaham।। (10)

भावार्थ :हे प्रभु! आप को भाव से ही जाना जा सकता है, योग मार्ग से भटके हुए मनुष्यों के लिये आप को प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। हे प्रभु! आप अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं, सभी जीवों द्वारा समान रूप से पूजित प्रभु का मैं निरन्तर भजन करता हूँ। (१०)

अनूप रूप भूपतिं, नतोऽहमुर्विजा पतिं।
प्रसीद मे नमामि ते, पदाब्ज भक्ति देहि मे॥ (११)

Anoop roop bhoopatin, Natoham-Urvija patim।
Praseed me namaami te, Padaabj bhakti dehi me।। (11)

भावार्थ :हे अनुपम रूप वाले समस्त जीवों के स्वामी सीता-पति मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे प्रभु आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने चरण कमलों की भक्ति प्रदान कीजिये आपको मेरा नमस्कार है। (११)

पठंति ये स्तवं इदं, नरादरेण ते पदं।
व्रजंति नात्र संशयं, त्वदीय भक्ति संयुताः॥ (१२)

Paṭhanti ye stavam idam, Naradareṇ te padam।
Vrajanti naatra sanshayam, Tvadiya bhakti sanyutaḥ।। (12)

भावार्थ :जो मनुष्य इस स्तुति को आदर-पूर्वक पढ़ते हैं, वह संशय-रहित होकर आपकी भक्ति से युक्त होकर परम पद को प्राप्त होते हैं। (१२)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

Shared by-Visheshwar Tripathi

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